पीएम नरेंद्री मोदी और शी जिनपिंग (फाइल फोटो)
लेकिन सीमा पर स्थिति जस की तस बनी हुई है। रक्षा विशेषज्ञों और खुफिया सूत्रों का कहना है कि मामला इतना पेचीदा हो गया है कि इसे सुलझाने के लिए कम से कम एक बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच बातचीत जरूरी हो गई है।
एक शीर्ष खुफिया अधिकारी के मुताबिक जिस तरह डोकलाम में दोनों देशों के बीच हुए टकराव का हल मोदी और जिनपिंग की वुहान में हुई अनौपचारिक मुलाकात से निकला था, कुछ उसी तरह की जटिल स्थिति इस बार भी बन गई है।
अब अहम सवाल है कि क्या मोदी और जिनपिंग एक बार फिर अनौपचारिक और बिना एजेंडे की मुलाकात करेंगे या कम से कम टेलीफोन से बातचीत करके मसले को सुलझाएंगे। अगस्त 2019 के मध्य में भारतीय पत्रकारों के एक दल की चीन यात्रा के दौरान मैंने चीन के अनेक राजनयिकों मीडिया हस्तियों और बुद्धिजीवियों से मुलाकात की थी।
इस दौरान मैंने पाया था कि भारत सरकार द्वारा जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 में बदलाव और राज्य के विभाजन को लेकर चीनी सत्तातंत्र में खासी बेचैनी थी। इस दौरान चीनी विदेश मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के साथ बातचीत में इस मुद्दे पर हमारी खासी बहस हुई और भारतीय पत्रकारों ने एक स्वर से कहा कि जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है।
उसमें जो भी बदलाव किए गए हैं वो भारत का आंतरिक मामला है उससे किसी भी पड़ोसी देश को चिंतित या परेशान होने की जरूरत नहीं है। तब उक्त चीनी राजनयिक ने जोर देकर कहा था कि चीन इस पूरे क्षेत्र में शांति बहाली का संरक्षक है और हम किसी को भी एसा कुछ भी करने की अनुमति नहीं दे सकते जिससे क्षेत्र की शांति भंग होने की आशंका पैदा हो और तनाव बढ़े।
अब जब लद्दाख में भारत चीन सीमा पर जिस तरह चीन ने सैनिक जमावड़ा करके भारतीय क्षेत्र का अतिक्रमण करने की कोशिश की और दबाव बनाया है, इससे पता चलता है कि जो बात उक्त चीनी राजनयिक ने कही थी, यह उसी चीनी नीति का अमल है।
खुफिया सूत्रों की मानें तो चीन यहां कारगिल जैसी स्थिति दोहराना चाहता है, लेकिन भारतीय खुफिया एजेंसियों की सतर्कता ने इस बार वो गलती नहीं की जो वाजपेयी सरकार के दौरान कारगिल क्षेत्र में पाकिस्तानी घुसपैठ के दौरान हुई थी। इसलिए चीन को कूटनीतिक वार्ता की मेज पर बैठना पड़ा।
अब अगर चीन बातचीत से पीछे हटता है और सीमा पर अतिक्रमण की अपनी जिद पर कायम रहता है तो अंतरराष्ट्रीय जनमत भारत के साथ होगा और कोरोना के कारण पहले से ही अमेरिका और यूरोपीय देशों के निशाने पर आ चुका चीन और भी अलग-थलग हो जाएगा।
हालांकि कूटनीतिक गलियारों में दबी जुबान से एक चर्चा यह भी है कि क्या जो चूक भारतीय सुरक्षा तंत्र से कारगिल के दौरान हुई थी, वही चूक एक बार फिर देश की उत्तर पूर्वी सीमाओं की सुरक्षा को लेकर हुई और चीन को गलवां नदी घाटी में अपने फौजी जमावड़े का मौका मिल गया।
विदेश मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय के अधिकारी इससे इनकार कर रहे हैं। उनका कहना है कि चीन ने सीमा पार अपने क्षेत्र में फौजी जमावड़ा तो जरूर बढ़ा लिया है लेकिन कहीं से भी कारगिल जैसी स्थिति नहीं है और भारतीय सेना मुस्तैदी से चीनी सेना के सामने अपनी चौकियों पर डटी है।
लेकिन तब यह माना गया कि जनवरी से मार्च तक इस इलाके में बर्फ जमा रहने से पहाड़ों पर दोनों ही तरफ सैन्य गतिविधियां ठप रहती हैं इसलिए हो सकता है कि चीनी अपने इलाके में कुछ कर रहे होंगे। अप्रैल में जब बर्फ पिघलती है तब दोनों ओर से सैनिक गतिविधियां तेज होती हैं।
ऐसे बर्फ हटने पर जब भारतीय सेना और सुरक्षा बल अपनी चौकियां संभालने पहुंचे तब चीनी जमावड़े की बात सामने आई और दोनों देशों के सैनिकों के बीच तनातनी की नौबत आ गई। हालांकि अब दोनों देशों के लेफ्टिनेंट जनरल के स्तर के अधिकारियों के बीच हुई बातचीत के पहले दौर के बाद चीन का रुख कुछ नरम हुआ है और सरकारी सूत्रों का कहना है कि चीन ने अपने सैनिकों को कुछ पीछे हटाया है।
लेकिन इससे भारत संतुष्ट नहीं है और सीमा पर पूर्व की यथास्थिति की बहाली चाहता है। जाने माने रक्षा विशेषज्ञ अजय शुक्ला के मुताबिक चीन ने लद्दाख की अग्रिम पंक्तियों को बदल दिया है और भारतीय क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है और नई दिल्ली सैनिक और कूटनीतिक स्तर पर बातचीत के जरिए मसला सुलझाने की बात कर रही है।
एक समाचार साइट में लिखे लेख के जरिए अजय शुक्ला ने यह भी बताया कि पहले दौर की बातचीत में चीन ने बेहद सख्त रुख अपनाया और जिन इलाकों पर उसने कब्जा किया, उन्हें छोड़ने में उसने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। जबकि भारत सरकार का कहना है कि बातचीत बेहद सौहार्द्रपूर्ण माहौल में हुई और दोनों पक्षों ने एक-दूसरे की चिंताओं को साझा किया और समझा।
लंबे समय तक कश्मीर और लद्दाख क्षेत्र में रह चुके एक शीर्ष स्तर के पूर्व खुफिया अधिकारी के मुताबिक गलवां नदी घाटी के इस दुर्गम इलाके में लंबे समय तक सेना और भारतीय तिब्बत सीमा पुलिस बल की चौकियों पर राशन भी हवाई मार्ग से पहुंचाया जाता था।
बाद में सड़क बनने के बाद यहां बनी छोटी-छोटी चौकियों पर वाहनों से राशन और दूसरा जरूरी सामान पहुंचाया जाने लगा। इस इलाके में भारत और चीन के बीच बंटी पैंगोंग त्सो झील में दोनों देश स्पीड बोट से अपने-अपने अधिकार वाले क्षेत्र की निगरानी करते हैं।
भारत और चीन की सीमा को बांटने वाली आठ पहाड़ियों, जिनको फिंगर आठ कहा जाता है पर फिंगर एक से आठ तक भारतीय सेना पैदल गश्त लगाती रही है, लेकिन अब फिंगर चार तक चीन की सेना आकर बैठ गई है और भारतीय सेना को आगे गश्त के लिए जाने नहीं दे रही है।
इसके साथ ही चीन ने न सिर्फ लद्दाख बल्कि लद्दाख से लेकर अरुणाचल तक भारत-चीन सीमा पर अपने क्षेत्र में बड़ी मात्रा में फौज और सैन्य साजो-सामान की तैनाती कर दी है। चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स जिसे चीनी सरकार का वैश्विक मामलों में मुखपत्र माना जाता है, में जिस तरह लेख पिछले दिनों आए हैं, उससे भारत को लेकर चीन के इरादों की साफ झलक मिलती है।
अक्टूबर 1949 के बाद से ही चीन के शासक जब भी बाहरी-भीतरी दबावों में फंसते हैं, वो पड़ोसी देशों के साथ मोर्चा खोल देते हैं। 1957 में तत्कालीन सोवियत संघ में हुई सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस में चीन और सोवियत संघ के संबंध बिगड़ गए थे।
अमेरिका पहले से ही चीन से नाराज था। इसके साथ ही चीन के भीतर भी कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष स्तर पर सत्ता संघर्ष शुरू हो गया था और 1955-56 की माओ की लंबी छलांग (ग्रेट लीप फॉर्वर्ड) नीति की असफलता ने चीन में भीतरी संकट पैदा कर दिया।
इन सारे बाहरी और भीतरी दबावों के बीच चीन ने 1962 में भारत पर हमला कर दिया और युद्ध की जीत के शोर में चीन के माओ त्से तुंग के नेतृत्व वाले तत्कालीन शासक प्रतिष्ठान ने देश पर अपनी पकड़ फिर मजबूत कर ली।
इसी तरह 1977-78 में जब माओ की मृत्यु के बाद चीन में शीर्ष स्तर पर जबर्दस्त सत्ता संघर्ष था और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में तंग श्याओ फंग के समर्थकों और माओ की पत्नी चियांग चिंग की अगुआई वाले गुट जिसने माओ के आखिरी वर्षों में सत्ता हासिल कर ली थी के बीच सत्ता संघर्ष में चीन के तत्कालीन नेता हुआ क्वा फंग फंसे हुए थे।
उसी दौरान तत्कालीन भारतीय विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी चीन की यात्रा पर गए और उसी समय चीन ने सीमा विवाद को लेकर वियतनाम के साथ युद्ध छेड़ दिया। नतीजा वाजपेयी को अपना दौरा बीच में ही छोड़कर आना पड़ा था।
उत्तर प्रदेश समेत कई राज्य और देश के कई उद्योगपति इसके लिए आगे भी आए हैं। इस बात ने चीन को चिढ़ा दिया है। उधर, अमेरिका ने कोरोना को लेकर चीन के खिलाफ आर्थिक और कूटनीतिक मोर्चा खोला है। पूरी दुनिया में कोरोना की जानकारी और आंकड़े न देने को लेकर चीन की किरकिरी हो रही है और विश्व स्वास्थ्य संगठन भी निशाने पर है।
शुरू में भारत इस मामले में चुप था लेकिन बैठक में भारत ने भी जांच के पक्ष में अपनी राय रखी। चीन इससे भी चिढ़ गया है। जबकि पिछले साल अनुच्छेद 370 में बदलाव और जम्मू कश्मीर राज्य के विभाजन व लद्दाख को केंद्र शासित क्षेत्र बनाने के मोदी सरकार के फैसले ने भी चीन को असहज किया है। चीन इसे भारत का आंतरिक मसला न मानकर भारत-चीन और पाकिस्तान के बीच का मसला मानता है।
इसलिए मौजूदा चीनी शासक अब सीमा पर सैनिक जमावड़ा करके भारत पर दबाव बनाकर एक तरफ देश के भीतर अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश में हैं तो दूसरी तरफ जहां उसके सैनिक हैं वहां से पीछे हटने के बदले भारत से कुछ सौदेबाजी करके अपना उल्लू सीधा करने की फिराक में है।
जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना काल में ही दुनिया के तमाम राष्ट्राध्यक्षों के साथ लगातार संवाद कायम किया और आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री के साथ वेबिनार के जरिए चर्चा की। दक्षिण कोरिया, जापान, वियतनाम और अमेरिका के साथ भारत के लगातार बढ़ते नजदीकी रिश्तों को भी चीन सहजता से नहीं ले पा रहा है।
ग्लोबल टाइम्स के मुताबिक चीन के खिलाफ अमेरिका द्वारा की जा रही वैश्विक घेराबंदी में भारत भी शामिल हो गया है। कूटनीति के विशेषज्ञों के मुताबिक चीन को लगता है कि दक्षिण चीन सागर और एशिया प्रशांत क्षेत्र में इस घेराबंदी से चीनी हितों को नुकसान पहुंच सकता है।
ग्लोबल टाइम्स के एक लेख के मुताबिक 2019 में नरेंद्र मोदी सरकार जब से ज्यादा बड़ी ताकत से दोबारा चुनकर आई है, चीन के प्रति उसकी नीति बदल गई है। चीनी सरकार के इस मुखपत्र के मुताबिक भारत सरकार में चीन विरोधी एक गुट इसके लिए जिम्मेदार है।
दरअसल, सोवियत संघ के पतन के बाद रूस का दबदबा अब दुनिया और एशिया पर नहीं रहा और इस खाली जगह को चीन भरना चाहता है। इसलिए एक तरफ वह वैश्विक स्तर पर अमेरिका से मुकाबला कर रहा है तो एशिया में उसे लगता है कि भारत उसके रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है।
इसलिए चीन ने भारत को घेरने की दूरगामी नीति पर पिछले कई वर्षों से काम शुरू कर दिया था। पाकिस्तान पहले से ही चीन का पिछलग्गू है, लेकिन अब चीन ने अपना प्रभाव नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार, मालदीव, बांग्लादेश और भूटान तक में बढ़ा लिया है।
कालापानी और लिपुलेख को लेकर नेपाल का ताजा आक्रामक रवैया जताता है कि वहां की सरकार किस हद तक चीन के प्रभाव में आ गई है। जिस तरह चीन को वैश्विक स्तर पर अमेरिका घेर रहा है, उसी तरह चीन एशिया में भारत को घेरने की कोशिश में है।
अब भारतीय कूटनीति और सैन्य नीति की सफलता इस पर निर्भर करती है कि हम किस तरह सीमा पर चीन से पूर्व की स्थिति बहाल कराने में सफल होते हैं। साथ ही अपने दूसरे पड़ोसी देशों को भरोसे में लेकर क्षेत्रीय शक्ति संतुलन में अहम भूमिका बनाए रखें।
साथ ही चीन को भी यह विश्वास दिलाएं कि भारतीय हितों की सुरक्षा का मतलब चीनी हितों के खिलाफ जाना नहीं है। दोनों देश अपने विवादित मुद्दों को धीरे-धीरे सुलझाते हुए अपने आर्थिक, व्यापारिक सांस्कृतिक और रणनीतिक रिश्तों को पहले की ही तरह विकसित करते रहेंगे।
इसके लिए अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग को खुद पहल करनी पड़े तो उसमें कोई हर्ज नहीं है। क्योंकि मोदी और शी की निजी कैमिस्ट्री ही दोनों देशों के बीच तमाम उलझे सवालों को सुलझा सकती है।
लेकिन सीमा पर स्थिति जस की तस बनी हुई है। रक्षा विशेषज्ञों और खुफिया सूत्रों का कहना है कि मामला इतना पेचीदा हो गया है कि इसे सुलझाने के लिए कम से कम एक बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच बातचीत जरूरी हो गई है।
एक शीर्ष खुफिया अधिकारी के मुताबिक जिस तरह डोकलाम में दोनों देशों के बीच हुए टकराव का हल मोदी और जिनपिंग की वुहान में हुई अनौपचारिक मुलाकात से निकला था, कुछ उसी तरह की जटिल स्थिति इस बार भी बन गई है।
अब अहम सवाल है कि क्या मोदी और जिनपिंग एक बार फिर अनौपचारिक और बिना एजेंडे की मुलाकात करेंगे या कम से कम टेलीफोन से बातचीत करके मसले को सुलझाएंगे। अगस्त 2019 के मध्य में भारतीय पत्रकारों के एक दल की चीन यात्रा के दौरान मैंने चीन के अनेक राजनयिकों मीडिया हस्तियों और बुद्धिजीवियों से मुलाकात की थी।
इस दौरान मैंने पाया था कि भारत सरकार द्वारा जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 में बदलाव और राज्य के विभाजन को लेकर चीनी सत्तातंत्र में खासी बेचैनी थी। इस दौरान चीनी विदेश मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के साथ बातचीत में इस मुद्दे पर हमारी खासी बहस हुई और भारतीय पत्रकारों ने एक स्वर से कहा कि जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है।
उसमें जो भी बदलाव किए गए हैं वो भारत का आंतरिक मामला है उससे किसी भी पड़ोसी देश को चिंतित या परेशान होने की जरूरत नहीं है। तब उक्त चीनी राजनयिक ने जोर देकर कहा था कि चीन इस पूरे क्षेत्र में शांति बहाली का संरक्षक है और हम किसी को भी एसा कुछ भी करने की अनुमति नहीं दे सकते जिससे क्षेत्र की शांति भंग होने की आशंका पैदा हो और तनाव बढ़े।
अब जब लद्दाख में भारत चीन सीमा पर जिस तरह चीन ने सैनिक जमावड़ा करके भारतीय क्षेत्र का अतिक्रमण करने की कोशिश की और दबाव बनाया है, इससे पता चलता है कि जो बात उक्त चीनी राजनयिक ने कही थी, यह उसी चीनी नीति का अमल है।
अनुच्छेद 370 में बदलाव के बाद से चीन परेशान
खुफिया सूत्रों की मानें तो चीन यहां कारगिल जैसी स्थिति दोहराना चाहता है, लेकिन भारतीय खुफिया एजेंसियों की सतर्कता ने इस बार वो गलती नहीं की जो वाजपेयी सरकार के दौरान कारगिल क्षेत्र में पाकिस्तानी घुसपैठ के दौरान हुई थी। इसलिए चीन को कूटनीतिक वार्ता की मेज पर बैठना पड़ा।
अब अगर चीन बातचीत से पीछे हटता है और सीमा पर अतिक्रमण की अपनी जिद पर कायम रहता है तो अंतरराष्ट्रीय जनमत भारत के साथ होगा और कोरोना के कारण पहले से ही अमेरिका और यूरोपीय देशों के निशाने पर आ चुका चीन और भी अलग-थलग हो जाएगा।
हालांकि कूटनीतिक गलियारों में दबी जुबान से एक चर्चा यह भी है कि क्या जो चूक भारतीय सुरक्षा तंत्र से कारगिल के दौरान हुई थी, वही चूक एक बार फिर देश की उत्तर पूर्वी सीमाओं की सुरक्षा को लेकर हुई और चीन को गलवां नदी घाटी में अपने फौजी जमावड़े का मौका मिल गया।
विदेश मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय के अधिकारी इससे इनकार कर रहे हैं। उनका कहना है कि चीन ने सीमा पार अपने क्षेत्र में फौजी जमावड़ा तो जरूर बढ़ा लिया है लेकिन कहीं से भी कारगिल जैसी स्थिति नहीं है और भारतीय सेना मुस्तैदी से चीनी सेना के सामने अपनी चौकियों पर डटी है।
क्यों आ गई सैनिकों के बीच तनातनी की नौबत
लेकिन तब यह माना गया कि जनवरी से मार्च तक इस इलाके में बर्फ जमा रहने से पहाड़ों पर दोनों ही तरफ सैन्य गतिविधियां ठप रहती हैं इसलिए हो सकता है कि चीनी अपने इलाके में कुछ कर रहे होंगे। अप्रैल में जब बर्फ पिघलती है तब दोनों ओर से सैनिक गतिविधियां तेज होती हैं।
ऐसे बर्फ हटने पर जब भारतीय सेना और सुरक्षा बल अपनी चौकियां संभालने पहुंचे तब चीनी जमावड़े की बात सामने आई और दोनों देशों के सैनिकों के बीच तनातनी की नौबत आ गई। हालांकि अब दोनों देशों के लेफ्टिनेंट जनरल के स्तर के अधिकारियों के बीच हुई बातचीत के पहले दौर के बाद चीन का रुख कुछ नरम हुआ है और सरकारी सूत्रों का कहना है कि चीन ने अपने सैनिकों को कुछ पीछे हटाया है।
लेकिन इससे भारत संतुष्ट नहीं है और सीमा पर पूर्व की यथास्थिति की बहाली चाहता है। जाने माने रक्षा विशेषज्ञ अजय शुक्ला के मुताबिक चीन ने लद्दाख की अग्रिम पंक्तियों को बदल दिया है और भारतीय क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है और नई दिल्ली सैनिक और कूटनीतिक स्तर पर बातचीत के जरिए मसला सुलझाने की बात कर रही है।
एक समाचार साइट में लिखे लेख के जरिए अजय शुक्ला ने यह भी बताया कि पहले दौर की बातचीत में चीन ने बेहद सख्त रुख अपनाया और जिन इलाकों पर उसने कब्जा किया, उन्हें छोड़ने में उसने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। जबकि भारत सरकार का कहना है कि बातचीत बेहद सौहार्द्रपूर्ण माहौल में हुई और दोनों पक्षों ने एक-दूसरे की चिंताओं को साझा किया और समझा।
फिंगर चार पर आकर बैठ गया है चीन
बाद में सड़क बनने के बाद यहां बनी छोटी-छोटी चौकियों पर वाहनों से राशन और दूसरा जरूरी सामान पहुंचाया जाने लगा। इस इलाके में भारत और चीन के बीच बंटी पैंगोंग त्सो झील में दोनों देश स्पीड बोट से अपने-अपने अधिकार वाले क्षेत्र की निगरानी करते हैं।
भारत और चीन की सीमा को बांटने वाली आठ पहाड़ियों, जिनको फिंगर आठ कहा जाता है पर फिंगर एक से आठ तक भारतीय सेना पैदल गश्त लगाती रही है, लेकिन अब फिंगर चार तक चीन की सेना आकर बैठ गई है और भारतीय सेना को आगे गश्त के लिए जाने नहीं दे रही है।
इसके साथ ही चीन ने न सिर्फ लद्दाख बल्कि लद्दाख से लेकर अरुणाचल तक भारत-चीन सीमा पर अपने क्षेत्र में बड़ी मात्रा में फौज और सैन्य साजो-सामान की तैनाती कर दी है। चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स जिसे चीनी सरकार का वैश्विक मामलों में मुखपत्र माना जाता है, में जिस तरह लेख पिछले दिनों आए हैं, उससे भारत को लेकर चीन के इरादों की साफ झलक मिलती है।
अक्टूबर 1949 के बाद से ही चीन के शासक जब भी बाहरी-भीतरी दबावों में फंसते हैं, वो पड़ोसी देशों के साथ मोर्चा खोल देते हैं। 1957 में तत्कालीन सोवियत संघ में हुई सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस में चीन और सोवियत संघ के संबंध बिगड़ गए थे।
इतिहास की नजर से चीन
इन सारे बाहरी और भीतरी दबावों के बीच चीन ने 1962 में भारत पर हमला कर दिया और युद्ध की जीत के शोर में चीन के माओ त्से तुंग के नेतृत्व वाले तत्कालीन शासक प्रतिष्ठान ने देश पर अपनी पकड़ फिर मजबूत कर ली।
इसी तरह 1977-78 में जब माओ की मृत्यु के बाद चीन में शीर्ष स्तर पर जबर्दस्त सत्ता संघर्ष था और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में तंग श्याओ फंग के समर्थकों और माओ की पत्नी चियांग चिंग की अगुआई वाले गुट जिसने माओ के आखिरी वर्षों में सत्ता हासिल कर ली थी के बीच सत्ता संघर्ष में चीन के तत्कालीन नेता हुआ क्वा फंग फंसे हुए थे।
उसी दौरान तत्कालीन भारतीय विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी चीन की यात्रा पर गए और उसी समय चीन ने सीमा विवाद को लेकर वियतनाम के साथ युद्ध छेड़ दिया। नतीजा वाजपेयी को अपना दौरा बीच में ही छोड़कर आना पड़ा था।
चीन पर फिर भीतरी और बाहरी दबाव
उत्तर प्रदेश समेत कई राज्य और देश के कई उद्योगपति इसके लिए आगे भी आए हैं। इस बात ने चीन को चिढ़ा दिया है। उधर, अमेरिका ने कोरोना को लेकर चीन के खिलाफ आर्थिक और कूटनीतिक मोर्चा खोला है। पूरी दुनिया में कोरोना की जानकारी और आंकड़े न देने को लेकर चीन की किरकिरी हो रही है और विश्व स्वास्थ्य संगठन भी निशाने पर है।
शुरू में भारत इस मामले में चुप था लेकिन बैठक में भारत ने भी जांच के पक्ष में अपनी राय रखी। चीन इससे भी चिढ़ गया है। जबकि पिछले साल अनुच्छेद 370 में बदलाव और जम्मू कश्मीर राज्य के विभाजन व लद्दाख को केंद्र शासित क्षेत्र बनाने के मोदी सरकार के फैसले ने भी चीन को असहज किया है। चीन इसे भारत का आंतरिक मसला न मानकर भारत-चीन और पाकिस्तान के बीच का मसला मानता है।
चीनी सामान के बहिष्कार की परेशानी
इसलिए मौजूदा चीनी शासक अब सीमा पर सैनिक जमावड़ा करके भारत पर दबाव बनाकर एक तरफ देश के भीतर अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश में हैं तो दूसरी तरफ जहां उसके सैनिक हैं वहां से पीछे हटने के बदले भारत से कुछ सौदेबाजी करके अपना उल्लू सीधा करने की फिराक में है।
जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना काल में ही दुनिया के तमाम राष्ट्राध्यक्षों के साथ लगातार संवाद कायम किया और आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री के साथ वेबिनार के जरिए चर्चा की। दक्षिण कोरिया, जापान, वियतनाम और अमेरिका के साथ भारत के लगातार बढ़ते नजदीकी रिश्तों को भी चीन सहजता से नहीं ले पा रहा है।
ग्लोबल टाइम्स के मुताबिक चीन के खिलाफ अमेरिका द्वारा की जा रही वैश्विक घेराबंदी में भारत भी शामिल हो गया है। कूटनीति के विशेषज्ञों के मुताबिक चीन को लगता है कि दक्षिण चीन सागर और एशिया प्रशांत क्षेत्र में इस घेराबंदी से चीनी हितों को नुकसान पहुंच सकता है।
ग्लोबल टाइम्स के एक लेख के मुताबिक 2019 में नरेंद्र मोदी सरकार जब से ज्यादा बड़ी ताकत से दोबारा चुनकर आई है, चीन के प्रति उसकी नीति बदल गई है। चीनी सरकार के इस मुखपत्र के मुताबिक भारत सरकार में चीन विरोधी एक गुट इसके लिए जिम्मेदार है।
रूस का दबदबा नहीं रहा
इसलिए चीन ने भारत को घेरने की दूरगामी नीति पर पिछले कई वर्षों से काम शुरू कर दिया था। पाकिस्तान पहले से ही चीन का पिछलग्गू है, लेकिन अब चीन ने अपना प्रभाव नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार, मालदीव, बांग्लादेश और भूटान तक में बढ़ा लिया है।
कालापानी और लिपुलेख को लेकर नेपाल का ताजा आक्रामक रवैया जताता है कि वहां की सरकार किस हद तक चीन के प्रभाव में आ गई है। जिस तरह चीन को वैश्विक स्तर पर अमेरिका घेर रहा है, उसी तरह चीन एशिया में भारत को घेरने की कोशिश में है।
अब भारतीय कूटनीति और सैन्य नीति की सफलता इस पर निर्भर करती है कि हम किस तरह सीमा पर चीन से पूर्व की स्थिति बहाल कराने में सफल होते हैं। साथ ही अपने दूसरे पड़ोसी देशों को भरोसे में लेकर क्षेत्रीय शक्ति संतुलन में अहम भूमिका बनाए रखें।
साथ ही चीन को भी यह विश्वास दिलाएं कि भारतीय हितों की सुरक्षा का मतलब चीनी हितों के खिलाफ जाना नहीं है। दोनों देश अपने विवादित मुद्दों को धीरे-धीरे सुलझाते हुए अपने आर्थिक, व्यापारिक सांस्कृतिक और रणनीतिक रिश्तों को पहले की ही तरह विकसित करते रहेंगे।
इसके लिए अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग को खुद पहल करनी पड़े तो उसमें कोई हर्ज नहीं है। क्योंकि मोदी और शी की निजी कैमिस्ट्री ही दोनों देशों के बीच तमाम उलझे सवालों को सुलझा सकती है।
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