क्या रही ओली की भारत विरोधी रणनीति?
नेपाल के प्रधानमंत्री केपी ओली ने नेपाल के नए नक्शों संबंधी विवाद खड़ा कर लिम्पियाधुरा, लिपुलेख और कालापानी को अपनी सीमा में दिखाने संबंधी अपनी चाल चल दी. इससे पहले पिछले पूरे महीने ओली ने भारत विरोधी रुख साफ कर रखा था. बयान बताते हैं कि ओली ने भारत के खिलाफ कैसे ज़हर उगला. कोविड 19 के समय में ओली ने कहा, ‘चीन से आए वायरस’ की तुलना में ‘भारतीय वायरस’ ज़्यादा खतरनाक है.
ये भी पढ़ें :- SURVEY: अब भी फंसे हैं 67% प्रवासी कामगार, 55% तुरंत घर जाना चाहते हैंनेपाल में कोरोना वायरस के 85 फीसदी केसों को भारत से आने का दावा करते रहे ओली ने नेपाल की संसद में दिए भाषण में भारत के राष्ट्रीय चिह्न का अपमान करते हुए सत्यमेव जयते को ‘सिंघम जयते’ कहा और अशोक चक्र में दिखने वाले शेरों को भारत की प्रभुत्व वाली मानसिकता करार दिया.
एक दीवार पर बना नेपाल के झंडे का चित्र. फाइल फोटो.
पहले भारत विरोधी नहीं थे ओली
साल 2015 के पहले नेपाल और भारत सदियों पुराने अच्छे पड़ोसी थे. उदाहरण के तौर पर भारत में करीब 80 लाख नेपाली रहते हैं और गोरखा रेजिमेंट में करीब 35 हज़ार नेपाली भारतीय सेना में शामिल हैं. दोनों देशों के बीच सीमाओं पर सुचारू आना जाना रहा है और शादियां भी होती रहीं. साथ ही, नेपाल के लिए सबसे बड़ा कारोबारी मित्र भारत रहा.
नेपाल के साथ ही ओली की भी छवि भारत विरोधी की नहीं थी. नेपाल में पूर्व राजदूत राकेश सूद के हवाले से खबरों में कहा गया कि 1996 में ओली ने नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी से अलग होकर अपना एक दल इसलिए बना लिया था क्योंकि वो भारत और नेपाल के बीच महाकाली नदी के पानी साझा समझौते के पक्ष में थे जबकि उनके साथी नेता नहीं. फिर क्या हुआ कि ओली भारत विरोधी होते चले गए?
ओली का भारत विरोधी के रूप में बदलाव
सूद की मानें तो ओली का भारत विरोधी नज़रिया 2015 में तब शुरू हुआ जब नेपाल में संविधान के तैयार होने की कवायद हुई. ओली इसके पक्षधर थे, लेकिन भारत ने मधेसियों के अधिकारों को लेकर इसका विरोध किया. दूसरी तरफ, नेपाल में प्रधानमंत्री की रेस में आखिरी वक्त पर ओली के खिलाफ सुशील कोइराला खड़े हो गए और नेपाल में कई लोगों ने माना कि इसके पीछे भारत की रणनीति थी.

भारत और नेपाल दो सदियों से मित्र राष्ट्र रहे हैं.
हालांकि ओली ने कोइराला को 2015 के चुनाव में हराया लेकिन भारत के प्रति उनका मन बदल चुका था. इसके बाद ओली को फिर एक झटका तब लगा जब नेपाल में भूकंप की त्रासदी से ओली सरकार जूझ रही थी और उन हालात में भारत ने सीमाएं बंद कर दीं. महीनों तक नेपाल को आपूर्ति होने में मुश्किल रही. इन तमाम हालात पर नज़र गड़ाए हुए चीन के पास यही मौका था और उसने दोनों हाथों से लपका भी.
ओली के हिमायती के तौर पर चीन की घुसपैठ
नेपाली लेखक सुजीव शाक्य के हवाले से द हिंदू की रिपोर्ट की मानें तो इसी समय चीन ने ओली के मददगार के तौर पर प्रवेश किया. मार्च 2016 में नेपाल ने चीन के साथ एक संधि पर दस्तखत किए जिससे नेपाल को शुष्क बंदरगाहों, रेल सहित चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत सड़क ट्रांसपोर्ट के ज़रिये चीनी इलाकों के साथ जुड़ने का सीधा रास्ता मिला. इसके बाद फिर ओली के सामने संकट खड़ा हुआ जब प्रचंड यानी पीके दहाल के धड़े ने ओली सरकार के खिलाफ बगावत की.
ओली ने फिर आरोप लगाया कि यह भारत के इशारे पर हुआ. खैर 2017 में ओली ने फिर जीत हासिल की और इस बार खुलकर भारत विरोधी छवि के साथ. इस तरह, ओली के रूप में नेपाल पर चीन की पकड़ मज़बूत होती चली गई और भारत अपने एक मित्र राष्ट्र को गंवाता चला गया. हालिया विवाद की वजह के पीछे यह अतीत ज़रूर हो, लेकिन कोई ट्रिगर भी तो होगा?

दो कम्युनिस्ट नेता: चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग के साथ ओली. फाइल फोटो.
चीन की सौदेबाज़ी का नतीजा है नक्शा विवाद?
इस साल शुरूआती मई में नेपाल में राजनीतिक संकट था. नेपाली कम्युनिस्ट पार्टियों के वरिष्ठ नेताओं ने सार्वजनिक तौर पर ओली से इस्तीफा मांगा था. भारत चूंकि कोविड 19 से जूझने में मसरूफ था, तो उसने नेपाल के हालात पर बातचीत को टाल दिया और फिर ओली ने चीन से मदद मांगी. चीनी राजदूत हाउ यैंकी ने नेपाली नेताओं के साथ कई बैठकें कर संकट को हल किया. ओली की कुर्सी बचाने की कीमत चीन ने क्या मांगी?
पहली तो यही कि चीन के खिलाफ जो अंतरराष्ट्रीय कवायद चल रही थी, उसमें नेपाल को चीन का साथ देना था. और, डीएनए की रिपोर्ट के मुताबिक राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि दूसरी कीमत यह भी थी कि भारत के साथ नेपाल सीमा विवाद को हवा देकर चीन के पक्ष में खड़ा नज़र आए. भारत ने भी नक्शा विवाद पर यही माना कि नेपाल ने चीन के इशारे पर यह कदम उठाया.
नक्शा विवाद पर क्या मान रहे हैं विशेषज्ञ?
नेपाल के इस कदम के पीछे क्या वाकई चीन है? पूर्व राजनयिक सूद के हवाले से खबरें हैं कि नेपाल में पिछले कुछ सालों से चीन का प्रभाव बढ़ा ज़रूर है लेकिन इस कदम के पीछे चीन का हाथ साफ तौर पर होना फिलहाल नहीं माना जा सकता. सूद ने कहा कि भारत ने नेपाल की गुहार पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, समय रहते देना चाहिए थी और नेपाल के साथ पहले ही इस विषय पर बातचीत करना थी.

प्रधानमंत्री मोदी के साथ नेपाली पीएम केपी ओली. फाइल फोटो.
रणनीतिक मामलों के विशेषज्ञ और पूर्व राजदूत प्रोफेसर एसडी मुनि ने कहा कि छोटे या कमज़ोर पड़ोसियों के साथ भारत पहले भी अति आत्मविश्वास से काम लेता रहा है. इसका ताज़ा नतीजा सामने है. वहीं, 2013 से 2017 के बीच नेपाल में राजदूत रहे रंजीत राय के मुताबिक संविधान संशोधन संबंधी नेपाल का ताज़ा फैसला विवाद को और मुश्किल कर देगा. विशेषज्ञों का साफ मानना है कि भारत को यह भरोसा देना चाहिए था कि वह कोविड 19 के प्रकोप से जूझने के बाद नेपाल से संवाद और मदद करेगा, लेकिन भारत ने ऐसा नहीं किया.
चीन की खातिर अब अमेरिका से भी दुश्मनी!
नेपाल ने चीन को खफा न करने की ठान ली है, भले ही इसके लिए उसे कुछ भी करना पड़े. मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन के ज़रिये नेपाल को बड़ी आर्थिक मदद 2017 में मंज़ूर हो चुकी थी. लेकिन कुछ विशेषज्ञ मान रहे थे कि एमसीसी की यह सहायता भारत के पक्ष में है और नेपाल से चीन का प्रभाव कम करने के लिए एक तरह से अमेरिका की घुसपैठ या दखलंदाज़ी है.
नेपाल में संरचनात्मक विकास के लिए अमेरिका ने इस डील के तहत नेपाल को 500 मिलियन डॉलर की सहायता देने की मंज़ूरी दी थी. अब खबरें हैं कि चीन को नाराज़ करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे नेपाल को अमेरिकी पेशकश ठुकराने पर मजबूर होना पड़ रहा है. दूसरी तरफ, विशेषज्ञ नेपाल को चेता रहे हैं कि चीन पर भरोसा न करे क्योंकि पाकिस्तान में इसी तरह के BRI प्रोजेक्ट से चीन 630 मिलियन डॉलर की ऊर्जा चुरा चुका है.

न्यूज़18 क्रिएटिव
अब नेपाल के सामने चुनौती है कि वह समय रहते सही फैसले करे. दूसरी तरफ, भारत के सामने चुनौती यह है कि वह दो सदियों पुराने कुदरती दोस्त को अपनी तरफ वापस ला सके.
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