लद्दाख में चीन के सैनिकों की अच्छी संख्या में मौजूदगी ने भारत के माथे पर बल ला दिया है। प्रधानमंत्री कार्यालय, रक्षा मंत्रालय, विदेश मंत्रालय और गृह मंत्रालय तीनों के लिए चीनी सेना की लद्दाख में मौजूदगी हैरान करने वाली है। हालांकि चीन के प्रवक्ता झाओ लिजियान ने अधिकारिक बयान देकर इसे द्विपक्षीय स्तर पर निबटाने का संदेश दिया है, लेकिन नई दिल्ली के लिए यह घुसपैठ काफी तंग करने वाली है।
सैन्य सूत्र बताते हैं कि चीन की ऐसी बार-बार की कोशिश को देखते हुए भारत को भी सीमा पर अपनी तैयारियों को मजबूत बनाना होगा। कारगिल संघर्ष के समय सेना की जीत पक्की करने वाले पूर्व मेजर जनरल लखविंदर सिंह का कहना है कि सैन्य बलों का आधुनिकीकरण एक लंबी प्रक्रिया है।
भारत इस पर लगातार ध्यान दे रहा है। सिंह का मानना है कि आने वाले समय में चीन से सटी सीमा पर सैन्य तैनाती को मजबूत बनाने पर भारत विचार कर सकता है। इसके लिए अमेरिका से आई मध्यम दूरी की मारक क्षमता वाली तोपों की तैनाती बढ़ाई जा सकती है।
चीन ने दिया द्विपक्षीय मैकेनिज्म पर जोर
सीमा विवाद को लेकर ताजा घटनाक्रम में चीन के प्रवक्ता झाओ लिजियान का बुधवार को दिया गया बयान महत्वपूर्ण है। उन्होंने अधिकारिक तौर पर कहा कि भारत और चीन के मामले में उनके देश को किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता मंजूर नहीं है।
झाओ ने कहा कि दोनों देशों में सीमा प्रबंधन को लेकर प्रभावी मैकेनिज्म है। दोनों देशों ने पहले भी कई बार बातचीत से महत्वपूर्ण समझौतों को लागू किया है। झाओ ने यह भी कहा कि दोनों देशों में बहुत अच्छा संवाद है। हालांकि अभी भारत की तरफ से इसको लेकर कोई प्रतिक्रिया नहीं आाई है।
भारत ने पिछले दशक से चीनी सैनिकों की घुसपैठ पर कभी आक्रामक रवैया नहीं अपनाया है। सैन्य झड़प से भी बचने की कोशिश की है और टैक्टिकल मूव से समस्या का समाधान तलाशने की पहल हुई है। इसके लिए नई दिल्ली ने हमेशा कूटनीतिक तरीकों को ही अजमाया।
दोकलाम में चीन के सैनिकों के साथ भारतीय सैनिकों के 73 दिनों तक उलझे रहने के दौरान तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इसका हल बातचीत से ही निकलने की वकालत की थी। कूटनीति के जानकार कहते हैं चीन से सीमा विवाद के मामले में भारत के पास एकमात्र विकल्प बातचीत और समझौता ही है। इसी नीति पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चले थे। इसी नीति पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चल रहे हैं।
भारत की नीति पड़ोसी देशों से विश्वास बहाली के उपायों की रही है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चीन से इसी आधार पर रिश्ते निभाए। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे नए दौर में पहुंचाया है। प्रधानमंत्री मोदी के समय में इनमें दो-तीन बड़े बदलाव हुए। भारत ने चीन से लगती सीमा पर अपने सुरक्षा बलों की गश्त और निगरानी बढ़ाई।
सुरक्षा बल बताते हैं कि इसमें थोड़ी आक्रमकता भी बढ़ाई गई। प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने चीन की सीमा के पास धीमी गति से चल रही सड़क परियोजनाओं और संसाधनों के विकास में तेजी लाने का काम किया। दलाई लामा, तिब्बत जैसे मामले को लेकर चीन चिढ़ता था। इस तरह के मुद्दों पर भारत ने यथार्थवादी रवैया अपनाया।
भारत में चीन विरोधी गतिविधियों की गुंजाइश पर अंकुश लगाया। इसके अलावा भारत ने चीन के साथ शिखर नेताओं की अनौपचारिक बैठक को आगे बढ़ाया। इस क्रम में 2018 में वुहान प्रांत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग की पहली अनौपचारिक समिट हुई। दूसरी भारत के महाबलिपुरम में हुई। इसे दोनों देशों में विश्वास बहाली के उपाय के रूप में सराहा भी गया।
यह सवाल भारतीय रणनीतिकारों के दिमाग में भी है कि आखिर ऐसा कब तक? चीन के सैनिक आक्रामक तरीके से घुसपैठ करते हैं, भारतीय सुरक्षा बलों को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। इसके समानांतर भारतीय सुरक्षा बल हमेशा रक्षात्मक और शांति की भूमिका में रहते हैं।
सैन्य मामलों के जानकार एयर वाइस मार्शल (पूर्व) एनबी सिंह कहते हैं कि इसका बड़ा कारण चीन के पास हमसे अधिक सैन्य तथा आर्थिक ताकत का होना है। लेकिन आप यह भी मत भूलिए कि भारत-चीन सीमा पर 1962 के बाद से कोई बड़ा सैन्य टकराव या स्थानीय सैन्य झड़प नहीं हुई है।
मेजर जनरल (पूर्व) लखविंदर सिंह भी यही कहते हैं। लखविंदर सिंह का कहना है कि लद्दाख में चीनी सैनिकों की आक्रमकता का स्तर चाहे जो रहा हो, लेकिन एक भी गोली नहीं चली है। वहीं चीन मामलों के जानकार स्वर्ण सिंह कहते हैं कि चीन अपनी सुप्रीमेसी का अब संदेश दे रहा है। वह चाहता है कि भारत इसे सहता रहे। इस बारे में विदेश मंत्रालय के अधिकारी फिलहाल कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं।
सार
- चीन से लगती सीमा के पास करनी होगी मजबूत तैयारी।
- लद्दाख की तरह चीनी सैनिकों की आक्रामकता ने किया परेशान।
- भारत के पास केवल कूटनीतिक वार्ता और समझौते का ही विकल्प।
विस्तार
लद्दाख में चीन के सैनिकों की अच्छी संख्या में मौजूदगी ने भारत के माथे पर बल ला दिया है। प्रधानमंत्री कार्यालय, रक्षा मंत्रालय, विदेश मंत्रालय और गृह मंत्रालय तीनों के लिए चीनी सेना की लद्दाख में मौजूदगी हैरान करने वाली है। हालांकि चीन के प्रवक्ता झाओ लिजियान ने अधिकारिक बयान देकर इसे द्विपक्षीय स्तर पर निबटाने का संदेश दिया है, लेकिन नई दिल्ली के लिए यह घुसपैठ काफी तंग करने वाली है।
सैन्य सूत्र बताते हैं कि चीन की ऐसी बार-बार की कोशिश को देखते हुए भारत को भी सीमा पर अपनी तैयारियों को मजबूत बनाना होगा। कारगिल संघर्ष के समय सेना की जीत पक्की करने वाले पूर्व मेजर जनरल लखविंदर सिंह का कहना है कि सैन्य बलों का आधुनिकीकरण एक लंबी प्रक्रिया है।
भारत इस पर लगातार ध्यान दे रहा है। सिंह का मानना है कि आने वाले समय में चीन से सटी सीमा पर सैन्य तैनाती को मजबूत बनाने पर भारत विचार कर सकता है। इसके लिए अमेरिका से आई मध्यम दूरी की मारक क्षमता वाली तोपों की तैनाती बढ़ाई जा सकती है।
चीन ने दिया द्विपक्षीय मैकेनिज्म पर जोर
सीमा विवाद को लेकर ताजा घटनाक्रम में चीन के प्रवक्ता झाओ लिजियान का बुधवार को दिया गया बयान महत्वपूर्ण है। उन्होंने अधिकारिक तौर पर कहा कि भारत और चीन के मामले में उनके देश को किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता मंजूर नहीं है।
झाओ ने कहा कि दोनों देशों में सीमा प्रबंधन को लेकर प्रभावी मैकेनिज्म है। दोनों देशों ने पहले भी कई बार बातचीत से महत्वपूर्ण समझौतों को लागू किया है। झाओ ने यह भी कहा कि दोनों देशों में बहुत अच्छा संवाद है। हालांकि अभी भारत की तरफ से इसको लेकर कोई प्रतिक्रिया नहीं आाई है।
भारत के पास कूटनीतिक वार्ता और समझौते का विकल्प
भारत ने पिछले दशक से चीनी सैनिकों की घुसपैठ पर कभी आक्रामक रवैया नहीं अपनाया है। सैन्य झड़प से भी बचने की कोशिश की है और टैक्टिकल मूव से समस्या का समाधान तलाशने की पहल हुई है। इसके लिए नई दिल्ली ने हमेशा कूटनीतिक तरीकों को ही अजमाया।
दोकलाम में चीन के सैनिकों के साथ भारतीय सैनिकों के 73 दिनों तक उलझे रहने के दौरान तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इसका हल बातचीत से ही निकलने की वकालत की थी। कूटनीति के जानकार कहते हैं चीन से सीमा विवाद के मामले में भारत के पास एकमात्र विकल्प बातचीत और समझौता ही है। इसी नीति पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चले थे। इसी नीति पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चल रहे हैं।
भारत ने चीन के साथ रिश्तों में कई बदलाव भी किए
भारत की नीति पड़ोसी देशों से विश्वास बहाली के उपायों की रही है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चीन से इसी आधार पर रिश्ते निभाए। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे नए दौर में पहुंचाया है। प्रधानमंत्री मोदी के समय में इनमें दो-तीन बड़े बदलाव हुए। भारत ने चीन से लगती सीमा पर अपने सुरक्षा बलों की गश्त और निगरानी बढ़ाई।
सुरक्षा बल बताते हैं कि इसमें थोड़ी आक्रमकता भी बढ़ाई गई। प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने चीन की सीमा के पास धीमी गति से चल रही सड़क परियोजनाओं और संसाधनों के विकास में तेजी लाने का काम किया। दलाई लामा, तिब्बत जैसे मामले को लेकर चीन चिढ़ता था। इस तरह के मुद्दों पर भारत ने यथार्थवादी रवैया अपनाया।
भारत में चीन विरोधी गतिविधियों की गुंजाइश पर अंकुश लगाया। इसके अलावा भारत ने चीन के साथ शिखर नेताओं की अनौपचारिक बैठक को आगे बढ़ाया। इस क्रम में 2018 में वुहान प्रांत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग की पहली अनौपचारिक समिट हुई। दूसरी भारत के महाबलिपुरम में हुई। इसे दोनों देशों में विश्वास बहाली के उपाय के रूप में सराहा भी गया।
..लेकिन ऐसा कब तक?
यह सवाल भारतीय रणनीतिकारों के दिमाग में भी है कि आखिर ऐसा कब तक? चीन के सैनिक आक्रामक तरीके से घुसपैठ करते हैं, भारतीय सुरक्षा बलों को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। इसके समानांतर भारतीय सुरक्षा बल हमेशा रक्षात्मक और शांति की भूमिका में रहते हैं।
सैन्य मामलों के जानकार एयर वाइस मार्शल (पूर्व) एनबी सिंह कहते हैं कि इसका बड़ा कारण चीन के पास हमसे अधिक सैन्य तथा आर्थिक ताकत का होना है। लेकिन आप यह भी मत भूलिए कि भारत-चीन सीमा पर 1962 के बाद से कोई बड़ा सैन्य टकराव या स्थानीय सैन्य झड़प नहीं हुई है।
मेजर जनरल (पूर्व) लखविंदर सिंह भी यही कहते हैं। लखविंदर सिंह का कहना है कि लद्दाख में चीनी सैनिकों की आक्रमकता का स्तर चाहे जो रहा हो, लेकिन एक भी गोली नहीं चली है। वहीं चीन मामलों के जानकार स्वर्ण सिंह कहते हैं कि चीन अपनी सुप्रीमेसी का अब संदेश दे रहा है। वह चाहता है कि भारत इसे सहता रहे। इस बारे में विदेश मंत्रालय के अधिकारी फिलहाल कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं।
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भारत के पास कूटनीतिक वार्ता और समझौते का विकल्प
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