क्या नेपाल चीन के हाथों में खेल रहा है? लाख टके का सवाल यह नहीं बल्कि भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा उठाई गई भारतीय विदेश नीति को रीसेट करने की मांग है। अभी इस पर वर्तमान भारतीय राजनयिक और रणनीतिकार कुछ नहीं बोलना चाहते। लेकिन केंद्र सरकार के सूत्रों का कहना है कि पूरे प्रकरण में नेपाल ने भारत को अनसुना कर दिया। बताते हैं भारत ने सीमा को लेकर नेपाल का रुख आने के बाद बातचीत का प्रस्ताव दिया था, लेकिन प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली इसके लिए तैयार नहीं हुए। वह बिना इंतजार किए आगे बढ़ गए।
प्रधानमंत्री ओली को दो प्रस्ताव भेजे गए थे। पहला प्रस्ताव विदेश सचिव की नेपाल यात्रा का था। यह यात्रा ताजा मुद्दे पर बातचीत की रूपरेखा के लिए थी। दूसरा प्रस्ताव वर्चुअल माध्यम से वार्ता की थी। सूत्र बताते हैं कि इससे पहले नेपाल से सीमा को लेकर कोविड-19 संक्रमण का असर कम होने पर वार्ता प्रक्रिया शुरू करने के लिए कहा गया था। नेपाल को आखिरी यह दोनों प्रस्ताव वहां की संसद के निचले सदन में नए नक्शे पर संशोधन बिल पारित होने के पहले भेजा गया था। ताज्जुब यह भी है प्रधानमंत्री ओली ने इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया। इतना ही नहीं ओली ने इस प्रस्ताव के बारे में नेपाल की जनता को भी कोई जानकारी नहीं दी।
भारत सरकार के सूत्रों का कहना है कि नेपाल की संसद के निचले सदन में नए नक्शे का संशोधन पारित होने के बाद पेचीदगियां बढ़ गई हैं। 13 जून को हुए इस मतदान में सभी 258 सदस्यों ने पक्ष में मतदान किया था। अब नेपाल को चाहिए कि वह भारत के साथ सीमा के मुद्दे को सुलझाने के लिए वार्ता का माहौल बनाए।
हालांकि इस बिल पर वहां की संसद के उच्च सदन में 16 जून को मतदान होना है। नेपाल के कई बुद्धजीवी भारत के साथ तल्ख हो रहे रिश्ते को सही नहीं मान रहे हैं। नेपाल के प्रमुख अर्थशास्त्री ने भी इसे सही नहीं माना है। 16 जून को नेशनल असेंबली के उच्च सदन में सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी के पास दो तिहाई का बहुमत है।
सुब्रमण्यम स्वामी ने रविवार को ट्वीट करके राजनीति, विदेश नीति, कूटनीति का पारा चढ़ा दिया था। लेकिन स्वामी का यह ट्वीट समय की चाल देखकर आया था। उन्होंने अपने ट्वीट में इस तरह की स्थिति के लिए नेपाल को दोषी नहीं ठहराया। स्वामी ने भारत की विदेश नीति को रीसेट करने की बात की है। उन्होंने साफ कहा कि सोचने वाली बात है, नेपाल ने भारत को अनसुना क्यों कर दिया? आखिर उनके पास ऐसी कौन सी मजबूरी थी।
पूर्व विदेश सचिव शशांक भी नेपाल सरकार के इस कदम को भारत के लिए अच्छा नहीं मानते। वह कहते हैं कि इसमें हमारे रणनीतिकारों की असफलता है। प्रो. एसडी मुनि भी कहते हैं कि देखते-देखते नेपाल में भारत का विरोध वहां के राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया है। भारत को इस पर ढंग से विचार करना चाहिए। अभी समय है और सही कदम उठाया जाना चाहिए।
नेपाल के आक्रामक तेवर और उसके तेवर में दिखाई दे रही चीन की छाया पर भारत सरकार का रुख भी कुछ रणनीतिकारों को नहीं समझ में आ रहा है। एक वरिष्ठ पूर्व राजनयिक का कहना है कि यह कहना ठीक नहीं है कि नेपाल वार्ता का माहौल तैयार करे। सूत्र का कहना है कि यह समय विदेश नीति में गंभीरता के साथ नई पहल का है।
एक तरफ रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह नेपाल के साथ रोटी-बेटी का रिश्ता बता रहे हैं और दूसरी तरफ नेपाल की तरफ से पहल होने या माहौल बनने पर बात होगी? सूत्र का कहना है कि मेरे ख्याल में इस तरह का संदेश नहीं दिया जाना चाहिए। भारत के अखबारों में जो भी प्रकाशित होता है, उसे नेपाल के लोग, वहां के भारत में पढ़ रहे तमाम छात्र ध्यान से पढ़ते हैं। इसलिए संवेदनशीलता बरते जाने की जरूरत है।
सार
- भारत का रुख सख्त, राजनयिक मान रहे हैं कि बढ़ गई हैं पेचीदगियां
- प्रधानमंत्री ओली ने क्यों नहीं बताया नेपाल की जनता को भारत का रुख
- नेपाल के बुद्धिजीवी भारत के साथ ऐसे संबंधों को सही नहीं मान रहे
विस्तार
क्या नेपाल चीन के हाथों में खेल रहा है? लाख टके का सवाल यह नहीं बल्कि भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा उठाई गई भारतीय विदेश नीति को रीसेट करने की मांग है। अभी इस पर वर्तमान भारतीय राजनयिक और रणनीतिकार कुछ नहीं बोलना चाहते। लेकिन केंद्र सरकार के सूत्रों का कहना है कि पूरे प्रकरण में नेपाल ने भारत को अनसुना कर दिया। बताते हैं भारत ने सीमा को लेकर नेपाल का रुख आने के बाद बातचीत का प्रस्ताव दिया था, लेकिन प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली इसके लिए तैयार नहीं हुए। वह बिना इंतजार किए आगे बढ़ गए।
प्रधानमंत्री ओली को दो प्रस्ताव भेजे गए थे। पहला प्रस्ताव विदेश सचिव की नेपाल यात्रा का था। यह यात्रा ताजा मुद्दे पर बातचीत की रूपरेखा के लिए थी। दूसरा प्रस्ताव वर्चुअल माध्यम से वार्ता की थी। सूत्र बताते हैं कि इससे पहले नेपाल से सीमा को लेकर कोविड-19 संक्रमण का असर कम होने पर वार्ता प्रक्रिया शुरू करने के लिए कहा गया था। नेपाल को आखिरी यह दोनों प्रस्ताव वहां की संसद के निचले सदन में नए नक्शे पर संशोधन बिल पारित होने के पहले भेजा गया था। ताज्जुब यह भी है प्रधानमंत्री ओली ने इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया। इतना ही नहीं ओली ने इस प्रस्ताव के बारे में नेपाल की जनता को भी कोई जानकारी नहीं दी।
अब तो नेपाल ही बनाए वार्ता का माहौल
भारत सरकार के सूत्रों का कहना है कि नेपाल की संसद के निचले सदन में नए नक्शे का संशोधन पारित होने के बाद पेचीदगियां बढ़ गई हैं। 13 जून को हुए इस मतदान में सभी 258 सदस्यों ने पक्ष में मतदान किया था। अब नेपाल को चाहिए कि वह भारत के साथ सीमा के मुद्दे को सुलझाने के लिए वार्ता का माहौल बनाए।
हालांकि इस बिल पर वहां की संसद के उच्च सदन में 16 जून को मतदान होना है। नेपाल के कई बुद्धजीवी भारत के साथ तल्ख हो रहे रिश्ते को सही नहीं मान रहे हैं। नेपाल के प्रमुख अर्थशास्त्री ने भी इसे सही नहीं माना है। 16 जून को नेशनल असेंबली के उच्च सदन में सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी के पास दो तिहाई का बहुमत है।
सुब्रमण्यम स्वामी ने समय की चाल देखकर किया था ट्वीट
सुब्रमण्यम स्वामी ने रविवार को ट्वीट करके राजनीति, विदेश नीति, कूटनीति का पारा चढ़ा दिया था। लेकिन स्वामी का यह ट्वीट समय की चाल देखकर आया था। उन्होंने अपने ट्वीट में इस तरह की स्थिति के लिए नेपाल को दोषी नहीं ठहराया। स्वामी ने भारत की विदेश नीति को रीसेट करने की बात की है। उन्होंने साफ कहा कि सोचने वाली बात है, नेपाल ने भारत को अनसुना क्यों कर दिया? आखिर उनके पास ऐसी कौन सी मजबूरी थी।
पूर्व विदेश सचिव शशांक भी नेपाल सरकार के इस कदम को भारत के लिए अच्छा नहीं मानते। वह कहते हैं कि इसमें हमारे रणनीतिकारों की असफलता है। प्रो. एसडी मुनि भी कहते हैं कि देखते-देखते नेपाल में भारत का विरोध वहां के राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया है। भारत को इस पर ढंग से विचार करना चाहिए। अभी समय है और सही कदम उठाया जाना चाहिए।
भारत सरकार के इस रुख का क्या अर्थ?
नेपाल के आक्रामक तेवर और उसके तेवर में दिखाई दे रही चीन की छाया पर भारत सरकार का रुख भी कुछ रणनीतिकारों को नहीं समझ में आ रहा है। एक वरिष्ठ पूर्व राजनयिक का कहना है कि यह कहना ठीक नहीं है कि नेपाल वार्ता का माहौल तैयार करे। सूत्र का कहना है कि यह समय विदेश नीति में गंभीरता के साथ नई पहल का है।
एक तरफ रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह नेपाल के साथ रोटी-बेटी का रिश्ता बता रहे हैं और दूसरी तरफ नेपाल की तरफ से पहल होने या माहौल बनने पर बात होगी? सूत्र का कहना है कि मेरे ख्याल में इस तरह का संदेश नहीं दिया जाना चाहिए। भारत के अखबारों में जो भी प्रकाशित होता है, उसे नेपाल के लोग, वहां के भारत में पढ़ रहे तमाम छात्र ध्यान से पढ़ते हैं। इसलिए संवेदनशीलता बरते जाने की जरूरत है।
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अब तो नेपाल ही बनाए वार्ता का माहौल
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