उनके साथ समय बिताने पर यह अनुमान होता है कि राष्ट्र प्रेम की ज्योति को जलाये रखने के लिए तथा नई पीढ़ी को स्वस्थ, प्रसन्न और चरित्रवान बनाये रखने के लिए कितने ही लोग अपने अपने ढंग से सेवा कार्य में लगे हुए हैं. स्वामी जी ने मुझे शरीर एवं राष्ट्र को स्वस्थ रखने के लिए यह नारे भेजे हैं जिन्हें पढ़कर आनन्द हुआ, थोड़ा और विचार करने पर लगा कि यह नारे कितनी संभावनाओं से भरे हैं, बच्चों और युवाओं का मनोबल निश्चित रूप से बढ़ाएंगे यदि बाकी लोग इस के मंतव्य को समझ लें और व्यावहारिकता में उतार देने में सहायता करें. छोटे छोटे से लगनेवाले यह शाद आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य को प्राप्त करनें में अत्यंत सशक्त एवं विस्तृत भागीदारी कर सकते हैं.
व्यक्ति और राष्ट्र दोनों को स्वस्थ रखने के लिए पहला नारा है चीनी बंद, विकल्प है देसी गुड़, जिसका उपयोग राष्ट्र का स्वास्थ्य भी बढ़ाएगा! यह निर्विवाद है कि स्वदेशी का उपयोग आत्मबल बढाता है. कोरोना के कारण बड़ी संख्या में मजदूरों की दर्दनाक घर वापसी के समय देश को करोड़ों की संख्या में रोजगार के नए अवसर निर्मित करने हैं, गांवों की और जाना है, कृषि और किसान तथा उसके सहयोगी कामगारों को उनका सम्मान लौटाना है, उन्हें जीवन यापन के लिए उपज के न्यायोचित मूल्य प्रदान करने हैं, वहां के स्थानीय उत्पादों को प्रेरणा देनी है, उत्पादन बढ़ाना है मगर यदि हम सब उसका उपयोग करने के लिए मानसिक और व्यावहारिक रूप से तैयार नहीं होंगे, तो सारा प्रयोजन निष्फल ही हो जाएगा! चीनी, गुड़ और गुड्स जैसे तीन शब्दों को पढ़कर, थोडा आनद लेकर मैं भी भूल सकता था, मगर यह मेरे मस्तिष्क में बार- बार उभर रहे हैं.
समस्या केवल चीन ही नहीं है, उसके समाधान के लिए तो देश तैयार है, और देशवासियों को अपनी वर्तमान सरकार पर पूरा विश्वास है. उससे भी बड़ी समस्या बेरोजगारी की है, हमारे उस दृष्टीकोण की भी है जिसमें विदेशी – और सस्ता विदेशी – हमें स्वदेशी उत्पाद के प्रति उत्तरदायित्व से विमुख लेकर देता है. चीन नें अपने दुस्साहस तथा कपटपूर्ण व्यवहार से हमें एकबार फिर से झकझोर दिया है कि हम राष्ट्र, स्वराज, स्वदेशी जैसी संकल्पनाओं पर हर प्रकार की राजनीति और पूर्वाग्रहों को पूरी तरह भुलाकर पुनर्विचार करें. उन करोड़ों लोगों को ध्यान में रखकर करें जो नहीं जानते हैं कि आगे चलकर उनका भविष्य क्या होगा, वे क्या करेंगें, कहां जायेंगे, कहाँ रहेंगे! स्वस्थ्य एवं संतुष्ट राष्ट्र हर प्रकार से दुश्मन से लोहा लेने में समर्थ होता है.1962 के युद्ध के बाद चीन के व्यवहार में चालाकी और धोखा पूरी तरह से उजागर होते रहे हैं. इधर कुछ वर्षों में यह स्पष्ट हो गया है कि चीन भारत से सशंकित है और उसे अपने प्रतिस्पर्धी के रूप में देखता है भारत की ओर से अनेक बार संबंध सुधारने के प्रयास किए गए परंतु सारा भाईचारा चीन की निगाह में केवल कागजों तक ही सिमटा रह गया. अब तो चीन के प्रति दृष्टिकोण पूरी तरह बदलना होगा.
देश के समक्ष इस समय चीन और पाकिस्तान वाह्य चुनौतियां हैं. आतंरिक स्तर पर अत्यंत महत्वपूर्ण चुनौती प्रवासी मजदूरों और कामगारों को पुनः सम्मानपूर्ण जीवन यापन के लिए योजनाएं तथा कार्यक्रम बनाकर उनका पूरी निष्ठा और कर्मठता से लागू किये जाने की है. इस समय सरकार और विपक्ष के बीच जो सम्बन्ध जनता को दिखाई देते हैं वे सामान्य-जन स्वीकार्य नहीं माने जा सकते हैं. थोड़ा 1962, 1965 और 1979 के युद्धों को याद करे. 1962 में पक्ष और विपक्ष में जो भी राजनेता थे, वह स्वतंत्रता आंदोलन के अनुभवी तथा परिपक्व व्यक्तित्व वाले लोग थे जिन्होंने राष्ट्र के लिए त्याग और बलिदान किया था.
1962 में हम तैयार नहीं थे, हमारी कूटनीतिक तथा राजनीतिक समझ चीन की चालों को समझ नहीं सकी, हमारी सेना सुसज्जित नहीं थी, फिर भी सारा देश पंडित नेहरु के साथ खड़ा हुआ, युद्ध के दौरान कोई आलोचना हुई ही नहीं. बाद में विश्लेषण हुआ, होना आवश्यक था. 1965 में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के प्रति देश में अतुलनीय सम्मान और श्रद्धा थी, उनका जीवन अन्य के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण था. 1971 के ऐतिहासिक और निर्णायक युद्ध में इंदिरा गांधी की राजनीतिक सूझबूझ और साहसपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता का देश कायल था. उस समय विपक्ष का योगदान अनुकरणीय था. देश ने इंदिरा गांधी को साहस की प्रतिमूर्ति माना और अटल बिहारी वाजपेई को गंभीर राजनीतिज्ञ के रूप में पहचाना. मेरे जैसे व्यक्ति को यह देखकर निराशा होती है कि उस जैसा वातावरण 2020 में बन नहीं पा रहा है. हमें समय रहते चेत जाना चाहिए. यह भी याद रखना चाहिए कि प्रजातंत्र में विपक्ष की भूमिका और देश हित में दलगत राजनीति से ऊपर उठने की पक्ष और विपक्ष की क्षमता की परख ऐसे असामान्य अवसरों पर ही होती है. शौर्य-प्लावित सरकार और समर्थ. सक्रिय, सौम्य तथा सजग विपक्ष मिलकर हर युद्ध जीत सकते हैं. सामने चे चीन या पाकिस्तान हो; या कोरोना, रोजगारी और भुखमरी हो.
सामान्य व्यक्ति भी यह समझ सकता है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में खेले जा रहे खेल किसी भी समय किसी भी देश के समक्ष अत्यंत जटिल समस्याएं प्रस्तुत कर सकते हैं. चीन इस समय अपनी चतुराई से ही मात खा रहा है. सारा विश्व उसे कोरोना के फैलाव के लिए जिम्मेवार मानता है. भारत के अंतर्राष्ट्रीय जगत में बढ़ते प्रभाव से वह चिंतित है. उसे आशंका है कि अधिक दिनों तक वह सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता को रोक नहीं पायेगा. उसने नेपाल को विषम परिस्थिति में डाल दिया है, वह चाहता है की नेपाल के भारत से रिश्ते स्थायी तौर पर विघटित हो जाएं. इसमें उसे सफलता मिलना कठिन होगा यद्यपि नेपाल ने जो नए नक्शे स्वीकृत कर लिए हैं भारत उन्हें कभी भी मान्यता नहीं दे सकेगा.
नेपाल में जब राजसत्ता हठी, वह एक हिन्दू राष्ट्र से धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बना, उस समय भारत नें संभवतः उसके दूरगामी परिणाम ठीक से नहीं आंके. हमारे कुछ नेतागण बड़े गर्व से इस सब में अपने योगदान की चर्चा करते हैं. वे नहीं समझ पाए कि वे भारत नेपाल के सांस्कृतिक और धार्मिक संबंधों में पलीता लगाने का प्रयास कर रहे थे. उस समय भारत कहीं न कहीं एक समझदारी पूर्ण भविष्य दृष्टि अपना सकता था मगर तत्कालीन सरकारों ने ऐसा नहीं किया. आज नेपाल जो कुछ कर रहा है वैसा दुस्साहस संभवत विश्व के बड़े-बड़े राष्ट्र भी आसानी से नहीं करेंगे. चीन की समस्या स्थायी तौर पर सुलझ जानी चाहिए क्योंकि इस समय देश के पास फिर एक सशक्त और फौलादी निश्चय वाली सरकार है. राष्ट्र इस सरकार के साथ है और यह जानता है कि नरेंद्र मोदी ने अब तक साहसपूर्ण निर्णय लेने में जो दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाई है वह अभूतपूर्व रही है. अपेक्षा की जाती है कि आगे भी देश का सम्मान बढ़ेगा; शहीदों का मान बढ़ेगा और भारत की सेना का परचम विश्व में शौर्य के साथ लहराएगा ( प्रोफेसर राजपूत शिक्षा और सामजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं)
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